नीलांबर-पीतांबर खरवार
रांची : सिपाही विद्रोह जब 1857 में हुआ था तब झारखण्ड
राज्य के 100 वर्ष
पुराना जिला पलामू के वीरों ने
भी अपनी वीरता का परिचय
दिया था। छोटानागपुर के
तत्कालीन अंग्रेज
कप्तानों की डायरियों से इस संबंध
में पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस
विद्रोह का प्रभाव सर्वप्रथम
रामगढ़ और रांची में दिखाई पड़ा।
इसके बाद पलामू में आकर इसने विकराल रूप धारण कर
लिया। उस समय पलामू के भोगताओं में नीलांबर और
पीतांबर इन दो भाईयों की वीरता प्रसिद्ध थी।
दोनों भाई गुरिल्ला युद्ध में बड़े निपुण थे। पलामू के
जंगलों में बसी भोगता, खरवार और
वृजिया आदि सभी जातियां सदा से स्वतंत्रा रहती आई
थीं। चेरो राजाओं ने भी इनके साथ छोड़-छाड़ नहीं करते
थे। चेरो राजाओं को अपना राज्य समाप्त हो जाने
का बड़ा दुःख था। वे निराशा के वातावरण में अपने
भाग्य को कोस रहे थे। ठाकुराइयों के प्रति भी चेरो,
खरवारों ओर भोग्ताओं में आक्रोश
था क्योंकि ठकुराईयों ने अंग्रेजों से मिलकर जागीरें
प्राप्त की थीं और अपना रोब-दाब बढ़ाने में व्यस्त थे।
21 जनवारी को कर्नल डालटन, मैनेजर मैकडोनल और
परगनाइत जगतपाल सिंह एक सम्मिलित सेना के साथ
नीलांबर-पीतांबर को पकड़ने की योजना बनाई लेकिन
वे दोनों पकड़ में नहीं आ सके। इससे कर्नल डालटन
बड़ा ही क्षुब्ध था। उसने चारों ओर गुप्तचरों के जाल
बिछा दिये। सैनिकों को खुलेआम लूटमार और
आगजनी का आदेष दिया। नीलांबर-पीतांबर को पकड़ने
वाले के लिए बड़ी जागीर और इनाम
की घोषणा की गयी। अपने निरपराध भाई बंधुओं
का सर्वनाश होते देखकर दोनों भाइयों को बड़ा खेद
हुआ। उन लोगों ने सोचा जब सबों का नाश
हो ही जायेगा तो हम एक-दो बचकर करेंगे ही क्या। अब
अंग्रेजों को उखाड़ फेंकना उनके लिए असंभव सा प्रतीत
होने लगा। बहुत सोच-विचार के बाद दोनों भाइयों ने
एक रात को अपने एक गुप्त निवास में सगे-संबंधियों और
परिवार के बाल-बच्चों से अंतिम मुलाकात
की योजना बनाई। इसकी सूचना अंग्रेजो को मिल गई।
स्वयं सूचना अंग्रेजों को मिल गई। स्वयं डालटन ने अपने
कुछ चुने वीरों के साथ वहां पहुंचकर उनके उस गुप्त आवास
को घेर लिया। अंग्रेजों से सामना करने के लिए वे
दोनों टूट पड़े। अंत में वे दोनों भाई अंग्रेजों की गिरफ्त
में आ गये। अंग्रेजों ने नीलांबर-पीतांबर
को बड़ी निर्दयतापूर्वक खुलेआम एक पेड़ के नीचे
फांसी पर लटका दिया गया। इस तरह नीलांबर-
पीतांबर दोनों भाइयों का अंत हो गया। आज तक
पलामूवासी दोनों का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ
उनका नाम लेते हैं। उस वृक्ष और गुफा की पूजा आज तक
लोग करते हैं, जहां पर दोनों वीर सपूतों ने दम तोड़ा था।
नीलांबर-पीतांबर की जीवनी हमें त्याग व
बलिदान की प्रेरणा देती है.
हमें उनके बताये मार्ग पर चलने
की आवश्यकता है.