शनिवार, 19 सितंबर 2015

निलांबर - पीतांबर खरवार क्रान्तिकारियो का इतिहास

नीलांबर-पीतांबर खरवार

रांची : सिपाही विद्रोह जब 1857 में हुआ था तब झारखण्ड
राज्य के 100 वर्ष
पुराना जिला पलामू के वीरों ने
भी अपनी वीरता का परिचय
दिया था। छोटानागपुर के
तत्कालीन अंग्रेज
कप्तानों की डायरियों से इस संबंध
में पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस
विद्रोह का प्रभाव सर्वप्रथम
रामगढ़ और रांची में दिखाई पड़ा।
इसके बाद पलामू में आकर इसने विकराल रूप धारण कर
लिया। उस समय पलामू के भोगताओं में नीलांबर और
पीतांबर इन दो भाईयों की वीरता प्रसिद्ध थी।
दोनों भाई गुरिल्ला युद्ध में बड़े निपुण थे। पलामू के
जंगलों में बसी भोगता, खरवार और
वृजिया आदि सभी जातियां सदा से स्वतंत्रा रहती आई
थीं। चेरो राजाओं ने भी इनके साथ छोड़-छाड़ नहीं करते
थे। चेरो राजाओं को अपना राज्य समाप्त हो जाने
का बड़ा दुःख था। वे निराशा के वातावरण में अपने
भाग्य को कोस रहे थे। ठाकुराइयों के प्रति भी चेरो,
खरवारों ओर भोग्ताओं में आक्रोश
था क्योंकि ठकुराईयों ने अंग्रेजों से मिलकर जागीरें
प्राप्त की थीं और अपना रोब-दाब बढ़ाने में व्यस्त थे।
21 जनवारी को कर्नल डालटन, मैनेजर मैकडोनल और
परगनाइत जगतपाल सिंह एक सम्मिलित सेना के साथ
नीलांबर-पीतांबर को पकड़ने की योजना बनाई लेकिन
वे दोनों पकड़ में नहीं आ सके। इससे कर्नल डालटन
बड़ा ही क्षुब्ध था। उसने चारों ओर गुप्तचरों के जाल
बिछा दिये। सैनिकों को खुलेआम लूटमार और
आगजनी का आदेष दिया। नीलांबर-पीतांबर को पकड़ने
वाले के लिए बड़ी जागीर और इनाम
की घोषणा की गयी। अपने निरपराध भाई बंधुओं
का सर्वनाश होते देखकर दोनों भाइयों को बड़ा खेद
हुआ। उन लोगों ने सोचा जब सबों का नाश
हो ही जायेगा तो हम एक-दो बचकर करेंगे ही क्या। अब
अंग्रेजों को उखाड़ फेंकना उनके लिए असंभव सा प्रतीत
होने लगा। बहुत सोच-विचार के बाद दोनों भाइयों ने
एक रात को अपने एक गुप्त निवास में सगे-संबंधियों और
परिवार के बाल-बच्चों से अंतिम मुलाकात
की योजना बनाई। इसकी सूचना अंग्रेजो को मिल गई।
स्वयं सूचना अंग्रेजों को मिल गई। स्वयं डालटन ने अपने
कुछ चुने वीरों के साथ वहां पहुंचकर उनके उस गुप्त आवास
को घेर लिया। अंग्रेजों से सामना करने के लिए वे
दोनों टूट पड़े। अंत में वे दोनों भाई अंग्रेजों की गिरफ्त
में आ गये। अंग्रेजों ने नीलांबर-पीतांबर
को बड़ी निर्दयतापूर्वक खुलेआम एक पेड़ के नीचे
फांसी पर लटका दिया गया। इस तरह नीलांबर-
पीतांबर दोनों भाइयों का अंत हो गया। आज तक
पलामूवासी दोनों का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ
उनका नाम लेते हैं। उस वृक्ष और गुफा की पूजा आज तक
लोग करते हैं, जहां पर दोनों वीर सपूतों ने दम तोड़ा था।
नीलांबर-पीतांबर की जीवनी हमें त्याग व
बलिदान की प्रेरणा देती है.
हमें उनके बताये मार्ग पर चलने
की आवश्यकता है.

शनिवार, 12 सितंबर 2015

खरवार जाती का गौरवशाली इतिहास

कभी थे सरकार,
अब मांग रहे अधिकार

  रोहतास पर राज करने वाले खरवार-चेरो राजाओं का इतिहास, उनकी सभ्यता व संस्कृति काफी समृद्ध रही है। नायक प्रताप धवल, बिक्रम धवल से लेकर उदयचंद ने यहां राज किया। आज उन्हीं के वंशज दाने-दाने को मोहताज होकर अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं। अशिक्षा, लाचारी, भूख व बेबसी से त्रस्त अधिकांश आदिवासी एकजुट होने की रणनीति बना रहे हैं।

शाहाबाद गजेटियर में रोहतास क्षेत्र के आदिम जनजातियों में प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक एवं बौद्धिक क्रांति की बात मिलती है। आदिम जनजातियों में खरवार, शबर, भर व चेरो प्रमुख थे। खरवारों का आधिपत्य सासाराम, रोहतासगढ़, भुरकुड़ा [शेरगढ़], गुप्ताधाम सहित सम्पूर्ण पहाड़ी पर था। चेरो राजाओं के आधिपत्य वाले क्षेत्र में देव मार्कण्डेय, चकई, तुलसीपुर, रामगढ़वा, जोगीबार, भैरिया और घोषिया, जारन-तारन रहा।

12-13वीं सदी में गहड़वाल शासन के अंतर्गत ख्यारवाला वंश [खरवार] का शासन आया। 19 अप्रैल 1158 ई. को तुतला भवानी [तुतराही] में इसी वंश के महानायक प्रताप धवल देव जपिलिया ने पहला शिलालेख तुतला भवानी मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर लगाया। इसमें अपने राज परिवार के साथ जपला से रोहतास तक नायक होने की बात कही गई है।

क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक बनावट पर शोध कर चुके डा. श्याम सुंदर तिवारी की माने तो फ्रांसिसी बुकानन ने अपनी यात्रा वृतांत के दौरान बांदू शिलालेख को पढ़ा था। जिसमें प्रताप धवल देव के अतिरिक्त रोहतास गढ़ पर शासन करने वाले 11 खरवार के नाम का उल्लेख है।

रोहतास और उसके आसपास की पहाड़ियों में छोटे-छोटे भागों पर इनके वंशजों का राज था। कैमूर पहाड़ी पर भी इनका आधिपत्य था और इनकी राजधानी भी रोहतास गढ़ में रही है। वन संपदाओं पर इनका अधिकार सदियों से चला आ रहा था।

स्वतंत्रता के पूर्व से इनके अधिकारों में कटौती होती गई। स्थिति यहां तक आ गई कि ये रोजी-रोटी के लिए भी मोहताज हो गए। वनों से इनका अधिकार समाप्त हो गया। ईमानदारी, कर्मठता व परिश्रम के लिए जाने-जाने वाले आदिवासी अब शक की निगाहों से देखे जाने लगे हैं। गरीबी और लाचारी के कारण उग्रवाद भी इनके बीच पनप रहा है ,l

 पूर्वज करुष या कारुष थे, जो बाद में करुवार कहलाए। यह अपभ्रंश होकर ख्यारवार व खरवार हो गया। पुराणों में इन्हें 'विंध्य पृष्ठ निवासिन' कहा जाता है। यह जाति सदियों पुरानी है और उसमें राजा के गुण होते हैं।

 के लोग बहुत ही साहसी और निडर हुआ करते थे, हाँ अक्षर ज्ञान न होने के कारन, हमारे पूर्वजो के साथ ज्याजति किये पढ़े-लिखे सामंतवादी लोग, सनातन धर्म के लोगो का हमारे पूर्वजो के ऊपर कोई जोर नहीं चलता था, वो निर्भीक, निडर हुआ करते थे, और समन्तियो धर्म वाले हमसे, जलते थे और साथ में डरते भी थे कि कही हम उनपे भरी ना पद जाये इस लिए वे मुगलो के साथ मिल कर हमारा पूर्वजो का नरसंघार करने लगे, हमारे जाती के लोग तितत्-बितर हो गए सभी अपने काबिले को छोड़ कर दूसरे-दूसरे जगह पे पलायन हो गए, तब से अब तक हम अपना वजूद आज तक ढूंढ रहे है हम जंगली काबिले के लोग है, जो मुगलो के आने बाद से बिखर गए, उसके बाद हमारे समाज के बचे कूचे लोगो को  अमंतवादियो ने हमारा हक, अधिकार, हमारे सब कुछ छीन लिए, फिर हमारे पूर्वजो को दर-दर भटकना पड़ा, हम राजा हरिश्चंद्र के बेटे रोहित के वंसज है,

गंगा नदी के इस पार जो लोग भाग कर आ गए, जो लोग अपने साथियो का साथ ना दे सके, अपने परिवार के बचे खुचे लोगो के प्यार और अपनापन उन्हें सताने लगी, वे लोग क्या करते, ना उनके पास कोई धन-दौलत, ना कोई रोजगार, मजबूरन अपने और अपने परिवार के लोगो का पेट पलने के लिए, रसोइया बन गए, (हमारे पूर्वजो के अंदर एक कला थी बहुत स्वादिस्ट खाना बनाने की) मर्द रसोइया हो गए सामंतियो के यहाँ और औरते उनके घरो का जूठन साफ करने लगी, और बाद में अपनी जिंदगी बचाने के लिए वे अपनी जात छिपाये, वही से सुरु हुआ, काम करने वाला-काम करने वाला-काम करने वाला, बोलते बोलते कमकर हो गए....


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